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Thursday, December 12, 2024

यूपी की सियासत : अखिलेश के दांव से बढ़ी मायावती और प्रियंका की चुनौती, अब ‘दिखने’ वाली राजनीति करेंगे यादव

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सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का यूपी केंद्रित राजनीति का फैसला सबसे ज्यादा बसपा और कांग्रेस की चुनौतियां बढ़ाएगा। उनकी यह रणनीति अपना वोट बैंक बचाए रखने और प्रदेश में भाजपा के मुख्य विकल्प की छवि बरकरार रखने का प्रयास माना जा रहा है। ऐसे में मायावती और प्रियंका गांधी को अपनी राजनीतिक जमीन सहेजने में कठिनाई होगी।

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अखिलेश ने लोकसभा के बजाय विधानसभा में बने रहने के निर्णय से राजनीति के जानकारों को चौंका दिया है। सपा के वर्ष 2017 में सत्ता से बाहर होने पर वह कुछ समय विधान परिषद में रहे, पर वहां नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी अहमद हसन को दी। बाद में आजगमढ़ से लोकसभा पहुंचे। ऐसे में माना जा रहा था कि अभी भी वह प्रदेश के बजाय केंद्र की राजनीति को तरजीह देंगे। इधर, कुछ वर्षों में यूपी में सीएम रह चुके नेता के लिए यही परंपरा मानी जाती है। हालांकि 2007 में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दो साल तब के निवर्तमान मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव नेता प्रतिपक्ष रहे। उसके बाद उन्होंने भी यह जिम्मेदारी अपने छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव को सौंप दी।

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अखिलेश के यूपी विधानसभा में बने रहने के फैसले पर दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक व राजनीतिक विश्लेषक डॉ. लक्ष्मण यादव कहते हैं कि अखिलेश समझ चुके हैं कि भाजपा से टक्कर लेने के लिए सदन से सड़क तक लड़ते हुए दिखना जरूरी है। रूहेलखंड विश्वविद्यालय में कार्यरत विश्लेषक एसी त्रिपाठी मानते हैं कि लोकसभा चुनाव आने तक सपा के वोट बैंक के राष्ट्रीय राजनीति में किसी अन्य विकल्प की तलाश की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह भी एक वजह है कि अखिलेश यूपी की राजनीति पर फोकस रखना चाहते हैं, जिससे अपने वोट बैंक को अपने साथ बनाए रख सकें।

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बसपा का मतदाता पहले की तरह पार्टी के लिए नहीं है निष्ठावान
इस बार विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत और सीटों के लिहाज से सपा सबसे ज्यादा फायदे में रही। पर, अखिलेश भलीभांति जानते हैं कि अपने अब तक के सर्वाधिक मत प्रतिशत की स्थिति को बनाए रखना उनके लिए कम बड़ी चुनौती नहीं है। लोकसभा चुनाव में मतदाताओं का मनोविज्ञान विधानसभा चुनाव से इतर रहने के कई उदाहरण हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अखिलेश यूपी की राजनीति में सड़क से सदन तक सक्रिय रहे तो वे भाजपा के साथ न जाने वाले मतदाताओं के वर्ग या समूह को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर भी काम करेंगे।

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ऐसे में बसपा का आधार वोट खिसकने का सिलसिला जारी रहने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस चुनाव में वर्ष 2017 के मुकाबले बसपा का वोट बैंक 9.35 प्रतिशत घटा है। वहीं, यह बात भी सही है कि बसपा का दलित वोट बैंक बड़ी मात्रा में भाजपा की तरफ मुड़ा। अब अखिलेश भी यह कोशिश करेंगे कि इसका कुछ न कुछ दिखने लायक हिस्सा सपा की ओर भी रुख करे। इन परिस्थितियों में मायावती की चुनौतियां बढ़ेंगी, क्योंकि बसपा को लेकर अब उसका मतदाता उतना मुतमईन नहीं रह गया है, जितना कभी रहा करता था।

कांग्रेस पर ब्राह्मण, दलित व मुसलमान वोटरों को रत्तीभर भरोसा नहीं 
उधर, कांग्रेस तो यूपी में अत्यधिक दयनीय श्रेणी में आ गई है। विधानसभा चुनाव के दौरान जो मतदाता उसके साथ आना चाहते थे, वे इसलिए नहीं आए कि उसके जीतने की संभावना कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। भविष्य में कांग्रेस को दो बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। पहला- भाजपा सरीखी गठी हुई सुव्यवस्थित सत्ताधारी पार्टी और दूसरा- सपा जैसा मजबूत विपक्ष। यानी उसे जहां मतदाताओं के सामने कम से कम मनोवैज्ञानिक तौर पर यह साबित करना होगा कि वह भाजपा का विकल्प बन सकती है।वहीं, यह दिखाना होगा कि सपा के सामने खड़े होने की भी उसकी हैसियत है। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी और उनकी प्रदेश टीम के लगातार संघर्ष में उतरे बिना यह स्थिति हासिल करना मुमकिन नहीं होगा। कांग्रेस के नेताओं को संघर्ष के राजनीतिक पर्यटन के लिए यूपी आने की अपनी छवि को बदलना पड़ेगा। कभी कांग्रेस का वोट बैंक रहा ब्राह्मण, दलित और मुसलमान उस पर रत्ती भर भरोसा नहीं कर पा रहा है। अखिलेश और सपा की सक्रियता इन वर्गों की इस मनोदशा को बदलने में और मुश्किलें खड़ा करेंगी, इसमें शायद ही किसी को शक हो।
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